तुम क्यों रही मौन
जब काटी जा रही थी
मेरी नाक,
'नाक काटना'
मुहावरे का अर्थ तो
भली-भांति समझती होगी तुम,
क्या ये था मेरा दोष
कि नारी होके भी
कर न पाई मैं अपनी
इच्छाओं का दमन,
चढ़ते यौवन के अल्हड़पन में
किसी सुकुमार पे आसक्त हो
कर डाला प्रणय-निवेदन,
जो विपरीत था तुम्हारे
तथाकथित सभ्य समाज के
दोगले नियमों के,
क्या इर्ष्या कर बैठी थी तुम
मेरी स्वच्छंदता,
मेरी निर्भिकता,
मेरी आत्मनिर्भरता से,
या सीखा ही न था तुमने
अपनी जिह्वा का उपयोग करना
पौरूष मनोवृत्ति के प्रतिकुल,
संभवतः तुम्हें भान न था
मेरे उन्मुक्त कामनाओं के
शोणित होने के परिणाम का,
सो चुप रही तुम,
और तुम्हारी चुप्पी
एक भयंकर भूल सिद्ध हुई,
सहना पड़ा तुम्हें भी
चरित्र पे लांछन,
भोगा ऐसे अपराध का दंड
जो तुमने किया ही नहीं,
अग्निपरीक्षा से सुरक्षित
निकल आई तुम्हारी देह,
किंतु हृदय को धधकने से
बचा पाई क्या तुम,
दग्ध व हताश तुमने
पुनः एक प्रलयकारी भूल की,
समा गई धरती में
कहलाई सती,
तुम्हारी कायरता को
महिमामंडित कर
ली जा रही है सदियों से
असंख्य सीताओं की बलि,
काटी जा रही है
शूर्पनखाओं की नाक अब भी,
फिर भी जी रही हूँ
उतनी ही स्वच्छंद,
उतनी ही निर्भिक,
उतनी ही आत्मनिर्भर होकर,
डायन, चुड़ैल,
फुलन, चरित्रहीन
कहता रहे ये आडंबरपुर्ण
सभ्य समाज,
स्वीकार है मुझे,
सीता या सती होना भी नहीं मुझे,
देवी कहलाना गाली से अधिक कुछ नहीं,
इतिहास से पूजी आ गई हो
वर्तमान तक किंतु
भविष्य तुम्हारा संकट में है सीते
क्या अब भी मूक ही रहोगी...
-नन्दना पंकज
कि नारी होके भी
कर न पाई मैं अपनी
इच्छाओं का दमन,
चढ़ते यौवन के अल्हड़पन में
किसी सुकुमार पे आसक्त हो
कर डाला प्रणय-निवेदन,
जो विपरीत था तुम्हारे
तथाकथित सभ्य समाज के
दोगले नियमों के,
क्या इर्ष्या कर बैठी थी तुम
मेरी स्वच्छंदता,
मेरी निर्भिकता,
मेरी आत्मनिर्भरता से,
या सीखा ही न था तुमने
अपनी जिह्वा का उपयोग करना
पौरूष मनोवृत्ति के प्रतिकुल,
संभवतः तुम्हें भान न था
मेरे उन्मुक्त कामनाओं के
शोणित होने के परिणाम का,
सो चुप रही तुम,
और तुम्हारी चुप्पी
एक भयंकर भूल सिद्ध हुई,
सहना पड़ा तुम्हें भी
चरित्र पे लांछन,
भोगा ऐसे अपराध का दंड
जो तुमने किया ही नहीं,
अग्निपरीक्षा से सुरक्षित
निकल आई तुम्हारी देह,
किंतु हृदय को धधकने से
बचा पाई क्या तुम,
दग्ध व हताश तुमने
पुनः एक प्रलयकारी भूल की,
समा गई धरती में
कहलाई सती,
तुम्हारी कायरता को
महिमामंडित कर
ली जा रही है सदियों से
असंख्य सीताओं की बलि,
काटी जा रही है
शूर्पनखाओं की नाक अब भी,
फिर भी जी रही हूँ
उतनी ही स्वच्छंद,
उतनी ही निर्भिक,
उतनी ही आत्मनिर्भर होकर,
डायन, चुड़ैल,
फुलन, चरित्रहीन
कहता रहे ये आडंबरपुर्ण
सभ्य समाज,
स्वीकार है मुझे,
सीता या सती होना भी नहीं मुझे,
देवी कहलाना गाली से अधिक कुछ नहीं,
इतिहास से पूजी आ गई हो
वर्तमान तक किंतु
भविष्य तुम्हारा संकट में है सीते
क्या अब भी मूक ही रहोगी...
-नन्दना पंकज
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